Swami Vivekanand – An Ideal for youth


Swami Vivekanand – An Ideal for youth



भावी युवापीढ़ी के समक्ष क्या हो आदर्श? 

 

प्रसंग उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध का है। उन दिनों विवेकानन्द की लोकप्रियता विश्वभर के युवाओं के बीच किसी नायक से कम न थी। युवाओं में उनसे बात करने, मिलने और धर्म व आध्यात्म जैसे विषयों पर उनका सानिध्य प्राप्त करने की उत्सुकता रहती। इसी क्रम में एक दिन एक कृशकाय युवक स्वामी जी के पास आकर उनसे गीता और वेदांत के अध्यापन के लिए आग्रह करने लगा। स्वामीजी ने उस युवक की ओर एक सरसरी नज़र से देखा और बोले - पहले छः माह फुटबॉल का अभ्यास कर के आइए उसके बाद मैं आपको वेदांत की शिक्षा दूंगा। वह युवक स्वामी विवेकानंद को अवाक होकर देखते हुए सोच में पड़ गया कि फुटबॉल के खेल और गीता के पठन-पाठन में क्या सह-संबंध। स्वामी जी को उस युवक के चेहरे के भाव पढ़ने में तनिक भी देर न लगी। युवक की शंका का समाधान करते हुए वे बोले - भगवद्गीता वीरों का शास्त्र है, यह एक कुशल रणनीतिज्ञ और दिव्यदृष्टा द्वारा एक महारथी को युद्धभूमि में दिया गया उपदेश है। इसलिए पहले अपने शरीर का बल बढ़ाना चाहिए। शरीर के बलिष्ठ होने से बुद्धि भी सशक्त होती है और तब गीता का उपदेश भी ठीक से समझा जा सकेगा। दुर्बल शरीर में तीक्ष्ण बुद्धि निवास नहीं करती ।

इस वर्ष 12 जनवरी को देश स्वामी विवेकानंद की 160वीं जन्म जयंती मना रहा होगा ऐसे में उनके जीवन से जुड़ा यह प्रसंग स्वतः उपयुक्त हो जाता है।

विवेकानन्द बाल्यावस्था से ही अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धि, तार्किक व खोजी वृत्ति के रहे थे। नास्तिक स्वभाव के नरेन्द्रनाथ की खोज रामकृष्ण परमहंस से मिलकर पूर्ण हुई और तब वे उन्ही की प्रेरणा से सन्यस्त हुए। विवेकानंद भारत की तरुणाई और युवा जोश में ईश्वर के दर्शन करते और कहा करते थे कि इस राष्ट्र के भाग्य का विधान इन नवपौरुषों के समर्थ कार्यों से ही संभव हो सकेगा। यद्यपि वे एक सन्यासी थे किंतु उन्होंने युवाओं को सदैव कर्तव्यपथ पर अडिग रहते हुए कार्य करते रहने के लिए ही प्रेरित किया। युवाओं की क्षमता के प्रति स्वामीजी की आस्था थी और इस क्षमता का निर्माण किस तरह किया जा सके, इस बावत उनके सुझाए उपक्रम आज उनके अवसान के लगभग डेढ़ शताब्दी बीत जाने के बाद भी प्रासंगिक बने हुए हैं।

स्वामीजी ने सदैव ही अध्ययन, चिंतन, मनन के साथ-साथ शरीर साधना को भी समान महत्व दिया। अभीष्ट परिणामों को प्राप्त करने के लिए वे शरीर व इसके माध्यम से किए जाने वाले पुरुषार्थ के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा करते थे 'विश्व एक व्यायामशाला है, जहां हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं'।
उन्होंने युवाओं का तर्कसंगत दृष्टिकोण अपनाते हुए धर्म, व आध्यात्म के मार्ग पर चलकर सच्ची सफलता प्राप्त करने का आह्वान किया। वे कहते थे- 'जिस तरह से विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न धाराएं अपना जल समुद्र में मिला देती हैं, उसी प्रकार मनुष्य द्वारा चुना हर मार्ग चाहे वह अच्छा हो या बुरा, भगवान तक जाता है'।

अब जबकि जीवन का पेंडुलम भौतिक प्रगति की ओर तीव्र बेग से दोलन करते हुए चढ़ रहा है और भारत का युवा अपने मानसिक श्रम से विश्वपटल पर अपनी छाप छोड़ रहा है, परन्तु जीवन की आपाधापी में भारत राष्ट्र और इसकी ऊर्जावान युवा पीढ़ी का स्वास्थ्य संतोष का विषय नहीं बन पा रहा और जीवन घटिका में साम्य बनता हुआ नहीं दिख रहा। ऐसे में स्वामी विवेकानंद द्वारा दिये गए सूत्रों को अपनाकर निश्चित ही युवापीढ़ी के कौशल का राष्ट्रनिर्माण के हेतु सार्थक व सक्षम उपयोग किया जा सकेगा और इस तरह ही कठोपनिषद का सूत्रवाक्य 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' धरातल पर परिणत हो सकेगा।

Shivaji Rai
Asst. Professor of History
SoAHSS, SAGE University Bhopal

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