Guru Purnima: Hope and Enlightenment


Guru Purnima: Hope and Enlightenment



गुरू पूर्णिमा निराशा की रात में आशा के सवेरे का अहसास कराती है 
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राजा-महाराजाओं और धनकुबेरों से भिन्न शक्ति है, गुरुओं और आचार्यों की परंतु समकालीन युग में गुरुओं की बहुतायत और शिष्यों की कमी होती जा रही है। वहां हम नहीं समझ पाते कि किसे अपना तन मन समर्पण कर दें ? ऐसी बिबूचन का समाधान प्रस्तुत श्लोक में बड़े सुंदर ढंग से किया गया है - 

"गुरवो बहव: सन्ति शिष्यवित्तोपहारिण:। 
तं एकं शंकरं वन्दे शिष्यसन्तापहारिणम् ।।"

अर्थात ऐसे हजारों गुरु हैं जो शिष्यों का धनहरण करते हैं, परंतु इन समस्त गुरुओं से भिन्न एक गुरु शंकर की मैं वन्दना करता हूँ , जो शिष्य के दुखों को दूर करते हैं ।

वर्तमान युग को सूचना क्रांति के विस्फोट का समय कहा जाता है। चौबीसों घंटे देश विदेश के खबरिया और मनोरंजक चैनल बेअंत हर पल शब्द उगल रहे हैं। अन्याय करने वालों का सफाई में  "ये" कहना है एवं अन्याय सहने वालों का " वो" कहना है। परंतु विवेक की लौ ठंडी पड़ती जा रही है। जिसके कारण एक जैसे अपराध थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। ज्ञान की आंधी जब-जब मन में उमड़ती - घुमड़ती है तो संशय और काल्पनिक भय की दीवारें स्वत: ढह जाती है। आदमी वह नहीं रहता जो था बल्कि वह हो जाता है जो उसे नहीं होना चाहिए।  बेहतर और बेहतर से भी बेहतर विश्वामित्र गुरु होने के नाते संसार भर के जब मित्र हैं, हमजोली है तो अभिशप्त अहिल्या जड़ पाषाण कैसे रह सकती है। उनकी करुणा से तरल ज्ञान पाकर भगवान् राम के हाथों उसे पूर्ववत चेतना सम्पन्न कर देते हैं। शंकराचार्य जी का स्त्रोत है -
" चित्रं बटतरोर्मले वृद्धा: शिष्या गुरुयुर्वा...."

इस वट वृक्ष के नीचे युवा गुरु और वृद्ध शिष्य आसीन है। युवा गुरु का मौन व्याख्यान चल रहा है उसी से शिष्यों के संशय और शंकाओं का स्वतः समाधान हो रहा है। क्योंकि वट ही ऐसा एकमात्र वृक्ष है जिसकी जड़ें हवा में झूलते हुए आँखों को जब दिखाई दे रही हैं तो शब्द खर्च करने की क्या जरुरत है। भारतीय मनीषा का मानना है कि जन्म लेते ही संतान पर तीन कर्ज आयद हो जाते हैं - पितृ , देव तथा गुरु जिसे चुकाने के लिए शिष्य स्वयं गुरु बने और ज्ञान की लाखों वर्ष से बहती धारा के मूलधन में अपना सबाया योगदान करें। आकाश, जल, वायु, अग्निदेव कर्ज हैं इनको चुकाने के लिए इनका सभी समान रूप से उपभोग करें। पितृ कर्ज से हम तभी मुक्त हो सकते है जब हम स्वयं माता-पिता बनें। 


फ्रांस में जब विचारक और दार्शनिक गुरु बालतेयर और रूसो आदि ने राजतंत्र और जनद्रोही सामंतवाद के विरुद्ध चौराहे पर खड़े होकर उसकी निर्रथकता और अप्रासंगिकता पर अट्टाहास किया तो उसकी धमक लुई 16 वें के राजमहल तक पहुंच गई। और राजशाही का खात्मा होते देर न लगी। भारत में भी आचार्य चाणक्य ने सिकंदर के विश्वविजय के सपने को धूल चटा दी थी। नि:सन्देह गुरु और शिक्षक आवश्यकता पड़ने पर गुरुकुलों से बाहर निकलकर सामाजिक और आर्थिक क्रान्ति के सूत्रधार के रूप में जनवाणी को मौके पर अभिव्यक्त करते हैं।

 

Witten by
Mr. Atishay Jain, 
Student of MAJMC 2nd Sem

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